
इसका सबसे ताजा प्रमाण है पिछले दिनों 65 आईएएस अधिकारियों का वह पत्र जिसमें उन्होंने लोकातांत्रिक मूल्यों पर हो रहे हमलों पर चिंता व्यक्त की है। साथ ही इन पूर्व अफसरों ने कार्यरत अधिकारियों को सतर्क किया है कि वे उन्मादि प्रवृत्तियों और वैचारिक उभारों से परे संविधान की मूल भावना के रक्षक होने के अपने मौलिक दायित्वों का निर्वहन करें। मतलब साफ है कि इन अधिकारियों को यह आभास हुआ है कि नौकरशाही राजनीतिक दबाव अथवा राजनीतिक सहयोग से भविष्य की अभिलाषाएं पूरी करने की गरज से अपने दायित्वों का सही ढंग से निर्वाह नहीं कर रही है। दफ्तरों में रजनीतिक दखल की यही पीड़ा पूर्व अधिकारियों के पत्र में व्यक्त भी हुई है। यह तकलीफ इससे पहले भी अधिकारी बयान कर चुके हैं। वर्ष 2010 के हुए एक सर्वे के मुताबिक मात्र 24 फीसदी अधिकारियों ने माना था कि उनकी पोस्टिंग मेरिट के आधार पर होती है।
जबकि हर दूसरे अधिकारी का मानना है कि कामकाज के दौरान राजनीतिक दखल एक बड़ी समस्या है। प्रमोशन, तबादले, पोस्टिंग आदि भी नियमों को ताक पर रखकर नेता-मंत्री-अफसर के गठजोड़ की दया पर निर्भर हैं, इस गठजोड़ में अब कॉरपोरेट-ठेकेदार-दलाल भी शामिल हो गये हैं। जिन अधिकारियों के राजनीतिक संपर्क अच्छे हैं, वे मलाईदार पदों पर निरंतर बने रहते हैं और सेवानिवृत्ति के बाद भी अच्छे पद पा जाते हैं। कुछेक उदाहरण तो ऐसे भी हैं, जिन्होंने सेवाकाल में बनाए राजनीतिक संपर्कों की बदौलत सत्ता साकेत तक पहुंच गए, जबकि राजनीतिक दबाव से परेय स्वतंत्र रूप से काम करने वाले अधिकारी हाशिए पर धकेल दिए गए या उन्हें एक जगह टिकने नहीं दिया गया, ऐसे अनेक उदाहरण हैं।
हरियाणा के अशोक खेमका इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं, जिनका अपनी 24 साल की नौकीर में 47 बार ट्रांसफर हुआ। यानि एक जगह पर वे कभी 6 महीने से अधिक नहीं टिक पाए। केंद्र सरकार ने कामचोर अधिकारियों की पहचान करने की जो प्रक्रिया शुरू की है, वह अच्छी है, लेकिन यदि इसका उद्देश्य नौकरशाही को राजनीतिक रूप से प्रभावित करके अपने कब्जे में करने का है, तो व्यवस्था के लिए घातक होगा।
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